लेख-निबंध >> प्राणों का सौदा प्राणों का सौदाश्रीराम शर्मा
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तेरह लेखों का संग्रह....
Prano Ka sauda
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
‘प्राणों का सौदा’ लेखक के तेरह लेखों का संग्रह है। इनमें से कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भी प्रकाशित हो चुके हैं।
इस संग्रह के दो लेख-‘अपमानजनक मृत्यु’ और ‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर’ किसी पुस्तक के आधार पर नहीं है। शेष लेख चैडविक की Hunters and the Hunted, मेजर फोरन की Kill or be killed, लेफ्टिनेंट सरले की Dwellers in the jungle नोलैज़ की The Terrors of the Jungle and in the Grip of Jangle पुस्तकों में वर्णित लेखों और वाइल्ड वर्ल्ड’ अंग्रेजी पत्रिका में छपे दो लेखों के आधार पर हैं। लेखक पुस्तकों और पत्रिका के लेखकों तथा प्रकाशकों का बड़ा ही कृतज्ञ है।
परिचय लिखते समय मुझे स्व. ब्रजमोहन वर्मा की याद आ रही है। अब से सात वर्ष पूर्व ‘शिकार’ की भूमिका लिखने के बाद पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और स्व. वर्माजी के साथ मैं चाय पी रहा था। अपने विकार संबंधी संस्मरणों को छापने के लिए नाम की आवश्यकता थी। पं. पद्मसिहं शर्माजी से मैंने पूछा कि कोई उपयुक्त नाम बताइए, मगर कोई आकर्षक नाम न सूझा। अंत में सबको मेरे प्रस्तावित नाम शिकार को मानना पड़ा-यद्यपि मैं स्वयं उस नाम से न तब संतुष्ट था और न अब। अस्तु, ‘शिकार’ नामकरण हो जाने के बाद और मशीन पर फर्मा चढ़ जाने के बाद अन्य पुस्तकों का जिक्र हुआ और स्व. वर्माजी ने एक नाम पेश किया, शिकार संबंधी मेरी दूसरी किताब के लिए, और वह नाम था ‘प्राणों का सौदा’। अफसोस है, प्राणों का सौदा का नामकरण करने वाले व्यक्ति अपने बीच में नहीं है। अगर साहित्य-शिखर पर वेग से बढ़ने वाला वह व्यक्ति वर्माजी आज होते, तो यह पुस्तक उसकी देख-रेख में छपती। पर विधि की गति वक्र है ! उपर्युक्त शब्द लिखने से, आशा है, वर्माजी की आत्मा, उनके छोटे भाई राजन बाबू, उनके मित्रों और ‘विशाल भारत’ परिवार को लेखक की भाँति कुछ सांत्वना मिलेगी।
शिकार संबंधी लेख लिखने में मुझे ‘विशाल भारत’ के पाठक और अन्य हिन्दी-साहित्य-सेवियों से जो प्रोत्साहन मिला, वह शब्दों में अंकित नहीं किया जा सकता। इस पुस्तक के लिखने का श्रेय पाठकों की अभिरुचि, मित्रों के प्रोत्साहन और हिंदी साहित्य के गौरव को मिलना चाहिए। यों लेखक की भी प्रशंसा हुई है, उसी तरह, जिस प्रकार गेहूं के साथ बथुआ को भी पानी लग जाता है।
इस संग्रह के दो लेख-‘अपमानजनक मृत्यु’ और ‘रुद्रप्रयाग का आदमखोर’ किसी पुस्तक के आधार पर नहीं है। शेष लेख चैडविक की Hunters and the Hunted, मेजर फोरन की Kill or be killed, लेफ्टिनेंट सरले की Dwellers in the jungle नोलैज़ की The Terrors of the Jungle and in the Grip of Jangle पुस्तकों में वर्णित लेखों और वाइल्ड वर्ल्ड’ अंग्रेजी पत्रिका में छपे दो लेखों के आधार पर हैं। लेखक पुस्तकों और पत्रिका के लेखकों तथा प्रकाशकों का बड़ा ही कृतज्ञ है।
परिचय लिखते समय मुझे स्व. ब्रजमोहन वर्मा की याद आ रही है। अब से सात वर्ष पूर्व ‘शिकार’ की भूमिका लिखने के बाद पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और स्व. वर्माजी के साथ मैं चाय पी रहा था। अपने विकार संबंधी संस्मरणों को छापने के लिए नाम की आवश्यकता थी। पं. पद्मसिहं शर्माजी से मैंने पूछा कि कोई उपयुक्त नाम बताइए, मगर कोई आकर्षक नाम न सूझा। अंत में सबको मेरे प्रस्तावित नाम शिकार को मानना पड़ा-यद्यपि मैं स्वयं उस नाम से न तब संतुष्ट था और न अब। अस्तु, ‘शिकार’ नामकरण हो जाने के बाद और मशीन पर फर्मा चढ़ जाने के बाद अन्य पुस्तकों का जिक्र हुआ और स्व. वर्माजी ने एक नाम पेश किया, शिकार संबंधी मेरी दूसरी किताब के लिए, और वह नाम था ‘प्राणों का सौदा’। अफसोस है, प्राणों का सौदा का नामकरण करने वाले व्यक्ति अपने बीच में नहीं है। अगर साहित्य-शिखर पर वेग से बढ़ने वाला वह व्यक्ति वर्माजी आज होते, तो यह पुस्तक उसकी देख-रेख में छपती। पर विधि की गति वक्र है ! उपर्युक्त शब्द लिखने से, आशा है, वर्माजी की आत्मा, उनके छोटे भाई राजन बाबू, उनके मित्रों और ‘विशाल भारत’ परिवार को लेखक की भाँति कुछ सांत्वना मिलेगी।
शिकार संबंधी लेख लिखने में मुझे ‘विशाल भारत’ के पाठक और अन्य हिन्दी-साहित्य-सेवियों से जो प्रोत्साहन मिला, वह शब्दों में अंकित नहीं किया जा सकता। इस पुस्तक के लिखने का श्रेय पाठकों की अभिरुचि, मित्रों के प्रोत्साहन और हिंदी साहित्य के गौरव को मिलना चाहिए। यों लेखक की भी प्रशंसा हुई है, उसी तरह, जिस प्रकार गेहूं के साथ बथुआ को भी पानी लग जाता है।
श्रीराम शर्मा
भूमिका
किसी भी साहित्य-सेवी को-विशेषकर वर्तमान परिस्थिति में, हिंदी साहित्य-सेवी को इससे अधिक और क्या आत्मसंतोष होगा कि उसे साहित्य के किसी अंग विशेष का जन्मदाता माना जाए। हिंदी में शिकार मेरे विचार से प्रकृति संबंधी साहित्य के पितृत्व के गौरव का ख्याल करके लेखक कभी-कभी यह सोचने लगता है कि यह सब उसके पूर्वजन्म के किसी पुण्य का फल है, वर्ना हिंदी के विशाल क्षेत्र में किसी अन्य योग्यतम लेखक के माथे पर यह सेहरा बंधता। पर इस प्रशंसा-प्राप्ति से पाठक विश्वास करे, लेखक का माथा नहीं फिरा, वरन् उससे तो उसमें नम्रता और संकोचशीलता की मात्रा बढ़ गई है। हां, एक बात का दु:ख उसे जरूर है और वह यह कि गत पंद्रह वर्षों में उसका कोई साथी-शिष्य नहीं-हिंदी साहित्य में उस विषय पर नहीं दिखाई दिया। कई मित्रों के प्रयास किया पर उनके लेखों में लेखन-कला की मौलिकता न आ पाई। और शायद वे थककर अथवा हतोत्साह होकर बैठ गए। मुख्य कारण यह था कि वे स्वयं प्रकृति के संपर्क में न आए थे। उन्होंने प्रकृति देवी को, आप चाहें तो उसे प्रकृति परी कहें उन आँखों से नहीं देखा, जिनसे उन्हें देखना चाहिए। प्राकृतिक दृश्यों के चित्रण के लिए राइफल और बंदूक की जरूरत नहीं है। जरूरत है सूक्ष्म कल्पना शक्ति, कोमल भावना, निरीक्षण बुद्धि और अनुभूति की।
लेखक के शिकार अथवा प्राकृतिक-चित्रण संबंधी लेखों का इतना मान शायद इसलिए हुआ है कि उनका साहित्यिक महत्त्व है, यद्यपि संकोचवश उसे यह लिखना पड़ता है कि उसके गत 20-21 वर्ष के साहित्यिक जीवन में शिकार-साहित्य का बहुत कम भाग है। पर किसी चीज के अभाव में जब कोई चीज आती है, तब उस पर उसकी आँखें लग ही जाती हैं। हां, लेखक ने शिकार को साहित्यिक और दार्शनिक जामा पहना दिया है। कोई भी चीज जब तक कलापूर्ण नहीं होती, तब तक उसका विशेष महत्त्व नहीं होता। बढ़िया से बढ़िया सागौन की लकड़ी पड़ी हो, पर जब तक कुशल बढ़ई उससे कोई बढ़िया कुर्सी या मेज या कलमदान नहीं बनाता, तब तक उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता-आकर्षण का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। बस लेखक ने शिकार-जीवन की घटनाओं को साहित्यिक समाज की चीज बनाने की कोशिश की है।
पाठक पूछ सकते हैं कि ‘शिकार’ और ‘प्राणों का सौदा’ में क्या अंतर है ? क्या ‘प्राणों का सौदा’ मौलिक रचना है ? क्या उसका कोई साहित्यिक महत्त्व है ? ‘शिकार’ आपबीती घटनाओं का चित्रण है और ‘प्राणों का सौदा’ कलाविद् और मशहूर शिकारियों पर बीती घटनाओं अथवा दुर्घटनाओं का चित्रण है। अंग्रेजी में छपे उन लेखों को आप पढ़ें, तो आपको मालूम होगा कि मूल घटनाओं में तनिक भी अंतर-घटाव-बढ़ाव नहीं है। ढांचा वही है, रत्तीभर का फर्क नहीं; पर लेखन-शैली और दार्शनिक तथा साहित्यिक विश्लेषण ने संग्रह को एक नवीनतम चीज बना दिया है, चिंता भय सुख और दु:ख संबंधी मनोविकारों को अंकित करने से कथा में जान पड़ जाती है। यदि ऐसा न हो, यदि मनोविकार चित्रण की आवश्यकता न हो, तो विश्व के लिए साहित्य भी फजूल है। रामायण की घटना की कितनी है; पर काव्य का रूप देने से उसका जो महत्त्व हुआ है, उसे हम खूब समझते हैं।
‘प्राणों का सौदा’ का साहित्यिक महत्त्व क्या है-इसका उत्तर साहित्य-सेवी ही दें। मैं इस विषय में कुछ न लिखूँगा।
हिंदी साहित्य के नाते लगे हाथ, एक बात और लिख दूँ। हिंदी शिकार साहित्य अभी सागर की एक बूंद के बराबर भी नहीं और शिकार-साहित्य जीव-जंतुओं के रहन-सहन संबंधी ज्ञान के बिना अधूरा ही समझना चाहिए। अंग्रेजी में तो हाथी, शेर और अन्य जानवरों पर बढ़िया पुस्तकें हैं; पर हिंदी वालों में भी धनी-मानी हैं और वे शेर मारने के रैकर्ड तोड़ने पर तुले हुए हैं, पर उनसे यह न होगा कि अपने अनुभवों को लिखकर या लिखाकर उन्हें पुस्तक का रूप दें दें। शेर, चीतल, बघेरा, सूअर और हाथी पर इतनी सुंदर पुस्तकें लिखी जा सकती हैं कि लेखक हिंदी साहित्य में अमरता प्राप्त कर सकता है। जंगली जानवरों को मारकर रैकार्ड-कोरे रैकार्ड तोड़ने की बात में तो बधिकता की बू है।
अनेक हिंदी-साहित्य-सेवी इंग्लै़ड गए हैं पर इन पंक्तियों के लेखक ने हिंदी में ‘झील प्रदेशों’ (Lake district) का वर्णन नहीं पढ़ा। तात्पर्य यह कि हम में अभी प्रकृति-दर्शन और प्रकृति का मूल्य आंकने की बहुत कमी है और इसी कमी के कारण, किन्हीं अंशों में, ऐसे साहित्य का निर्माण नहीं हो रहा। परंतु आशा है, हमारे नवयुवक लेखक और कवि इस ओर ध्यान देंगे और साहित्य की त्रुटि-पूर्ति और अपनी ख्याति की वृद्धि करेंगे।
लेखक के शिकार अथवा प्राकृतिक-चित्रण संबंधी लेखों का इतना मान शायद इसलिए हुआ है कि उनका साहित्यिक महत्त्व है, यद्यपि संकोचवश उसे यह लिखना पड़ता है कि उसके गत 20-21 वर्ष के साहित्यिक जीवन में शिकार-साहित्य का बहुत कम भाग है। पर किसी चीज के अभाव में जब कोई चीज आती है, तब उस पर उसकी आँखें लग ही जाती हैं। हां, लेखक ने शिकार को साहित्यिक और दार्शनिक जामा पहना दिया है। कोई भी चीज जब तक कलापूर्ण नहीं होती, तब तक उसका विशेष महत्त्व नहीं होता। बढ़िया से बढ़िया सागौन की लकड़ी पड़ी हो, पर जब तक कुशल बढ़ई उससे कोई बढ़िया कुर्सी या मेज या कलमदान नहीं बनाता, तब तक उसका कोई विशेष महत्त्व नहीं होता-आकर्षण का तो कोई सवाल ही नहीं उठता। बस लेखक ने शिकार-जीवन की घटनाओं को साहित्यिक समाज की चीज बनाने की कोशिश की है।
पाठक पूछ सकते हैं कि ‘शिकार’ और ‘प्राणों का सौदा’ में क्या अंतर है ? क्या ‘प्राणों का सौदा’ मौलिक रचना है ? क्या उसका कोई साहित्यिक महत्त्व है ? ‘शिकार’ आपबीती घटनाओं का चित्रण है और ‘प्राणों का सौदा’ कलाविद् और मशहूर शिकारियों पर बीती घटनाओं अथवा दुर्घटनाओं का चित्रण है। अंग्रेजी में छपे उन लेखों को आप पढ़ें, तो आपको मालूम होगा कि मूल घटनाओं में तनिक भी अंतर-घटाव-बढ़ाव नहीं है। ढांचा वही है, रत्तीभर का फर्क नहीं; पर लेखन-शैली और दार्शनिक तथा साहित्यिक विश्लेषण ने संग्रह को एक नवीनतम चीज बना दिया है, चिंता भय सुख और दु:ख संबंधी मनोविकारों को अंकित करने से कथा में जान पड़ जाती है। यदि ऐसा न हो, यदि मनोविकार चित्रण की आवश्यकता न हो, तो विश्व के लिए साहित्य भी फजूल है। रामायण की घटना की कितनी है; पर काव्य का रूप देने से उसका जो महत्त्व हुआ है, उसे हम खूब समझते हैं।
‘प्राणों का सौदा’ का साहित्यिक महत्त्व क्या है-इसका उत्तर साहित्य-सेवी ही दें। मैं इस विषय में कुछ न लिखूँगा।
हिंदी साहित्य के नाते लगे हाथ, एक बात और लिख दूँ। हिंदी शिकार साहित्य अभी सागर की एक बूंद के बराबर भी नहीं और शिकार-साहित्य जीव-जंतुओं के रहन-सहन संबंधी ज्ञान के बिना अधूरा ही समझना चाहिए। अंग्रेजी में तो हाथी, शेर और अन्य जानवरों पर बढ़िया पुस्तकें हैं; पर हिंदी वालों में भी धनी-मानी हैं और वे शेर मारने के रैकर्ड तोड़ने पर तुले हुए हैं, पर उनसे यह न होगा कि अपने अनुभवों को लिखकर या लिखाकर उन्हें पुस्तक का रूप दें दें। शेर, चीतल, बघेरा, सूअर और हाथी पर इतनी सुंदर पुस्तकें लिखी जा सकती हैं कि लेखक हिंदी साहित्य में अमरता प्राप्त कर सकता है। जंगली जानवरों को मारकर रैकार्ड-कोरे रैकार्ड तोड़ने की बात में तो बधिकता की बू है।
अनेक हिंदी-साहित्य-सेवी इंग्लै़ड गए हैं पर इन पंक्तियों के लेखक ने हिंदी में ‘झील प्रदेशों’ (Lake district) का वर्णन नहीं पढ़ा। तात्पर्य यह कि हम में अभी प्रकृति-दर्शन और प्रकृति का मूल्य आंकने की बहुत कमी है और इसी कमी के कारण, किन्हीं अंशों में, ऐसे साहित्य का निर्माण नहीं हो रहा। परंतु आशा है, हमारे नवयुवक लेखक और कवि इस ओर ध्यान देंगे और साहित्य की त्रुटि-पूर्ति और अपनी ख्याति की वृद्धि करेंगे।
आगरा
फाल्गुन शुक्ल 15 संवत् 1995
5-3-39
फाल्गुन शुक्ल 15 संवत् 1995
5-3-39
श्रीराम शर्मा
पं. श्रीराम शर्मा–एक परिचय
शर्माजी का जन्म सन् 1896 में उत्तर प्रदेश के जिला मैनपुरी (तहसील शिकोहाबाद) के अंतर्गत ग्राम किरथरा में हुआ। शर्माजी के पितामह बहुत बडे़ जमींदार तथा धनवान व्यक्ति थे परन्तु दुर्भाग्य से उनके पिता पं. रेवतीराम शर्मा का निधन अल्पायु में ही हो गया, श्रीरामशर्मा उस समय चार-पांच वर्ष की आयु के ही थे। उन्हीं दिनों रिश्तेदारों तथा अन्य जमींदारों के कुचक्र से उनकी पैतृक संपत्ति जाती रही। 150 बीघा जमीन मात्र रह गई। शर्माजी की माताजी ने एक पेड़ के नीचे तिरपाल डालकर, खेत में रहकर अपने तीन बेटों के साथ संघर्षपूर्ण जीवन व्यतीत किया। स्वयं खेती की, और बेटों का पालन-पोषण किया। शर्माजी को आरंभिक शिक्षा उनके ब़ड़े भाई से ही मिली, बड़े भाई के कठोर अनुशासन ने उन्हें भी अनुशासन-प्रिय बना दिया।
पं. श्रीराम शर्मा की पत्नी का नाम श्रीमती लक्ष्मी देवी था। अपने विवाह में शर्माजी ने घोर आदर्शवाद का निर्वाह किया था। उनके श्वसुर पं. हेतराम शर्मा आर्यसमाजी थे। विवाह में पांच व्यक्ति बारात में गए थे। तथा दहेज में एक केवल एक नारियल, एक साड़ी तथा सवा रुपया स्वीकार किया गया था। शर्माजी की ग्यारह संतानों में से पांच जीवित हैं उनकी सबसे बड़ी पुत्री कुमारी कमला शर्मा आगरा में एक कन्या विद्यालय की प्रधानाचार्य थीं। बड़े पुत्र रमेशकुमार शर्मा, कश्मीर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष थे। दूसरी बेटी श्रीमती शारदा अग्निहोत्री हैं। उनके पति श्री ओम प्रकाश अग्निहोत्री आई.ए.एस. रेलवे में वरिष्ठ अधिकारी थे। सबसे छोटी बेटी श्रीमती सरोजिनी अवस्थी केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा में पढाती हैं। तथा उनके पति श्री सरोजकुमार अवस्थी आगरा कालिज में विधि विभाग में पढ़ाते हैं। छोटे पुत्र श्री उदयन शर्मा पत्रकार हैं।
पं. श्रीराम शर्मा ने खुर्जा में हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। हाईस्कूल पास करने के बाद शर्माजी ने आगरा कालिज में प्रवेश लिया। प्रति शनिवार वे पैदल तैंतीस मील अपने गांव जाया करते थे और प्रति सोमवार आधी रात चलकर आगरा आ जाया करते थे। रेल किराए के साढ़े पांच आने बचाने के लिए वे यह करते थे। शरीर से वे अत्यंत शक्तिशाली थे, और मन से उतने ही निर्भय। गांव के जमींदारों के लठैतों को अपने साथ के 15-20 लड़कों के साथ, आठ-दस वर्ष की आयु में उन्होंने रेल की पटरी के पत्थरों से मार-मारकर भगा दिया था। कुएँ में घुसकर काले सांप को मारा था। ये सारे कार्य उनके चरित्र तथा स्वभाव के द्योतक है.। बी.ए. में पढते समय उनका संपर्क पं. श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन तथा श्री गुलजारीलाल नंदा से हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन तथा कांग्रेस के कार्यकर्ता में वे कूद पड़े। इसी बीच श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, जिन्हें वे जीवनभर राजनीति तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना गुरु मानते रहे। बी.ए. पास करने के बाद शर्माजी ने एम. ए. (अर्थशास्त्र) तथा एलएल. बी. की कक्षाओं में प्रवेश लिया। उन्हीं दिनों श्री गणेशशंकर विद्यार्थी गिरफ्तार कर लिए गए। जेल से उनका संदेश प्राप्त करके शर्माजी ने पढ़ाई छोड़ दी और ‘प्रताप’ (कानपुर) का संपादन संभाल लिया। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। संपूर्ण जीवन पत्रकारिता, लेखन तथा राजनीति कार्य में अर्पित कर दिया। शर्माजी का देहावसान 27 फरवरी सन् 1967 को आगरा में हुआ था।
पं. श्रीराम शर्मा की पत्नी का नाम श्रीमती लक्ष्मी देवी था। अपने विवाह में शर्माजी ने घोर आदर्शवाद का निर्वाह किया था। उनके श्वसुर पं. हेतराम शर्मा आर्यसमाजी थे। विवाह में पांच व्यक्ति बारात में गए थे। तथा दहेज में एक केवल एक नारियल, एक साड़ी तथा सवा रुपया स्वीकार किया गया था। शर्माजी की ग्यारह संतानों में से पांच जीवित हैं उनकी सबसे बड़ी पुत्री कुमारी कमला शर्मा आगरा में एक कन्या विद्यालय की प्रधानाचार्य थीं। बड़े पुत्र रमेशकुमार शर्मा, कश्मीर विश्वविद्यालय में हिंदी विभाग के आचार्य एवं अध्यक्ष थे। दूसरी बेटी श्रीमती शारदा अग्निहोत्री हैं। उनके पति श्री ओम प्रकाश अग्निहोत्री आई.ए.एस. रेलवे में वरिष्ठ अधिकारी थे। सबसे छोटी बेटी श्रीमती सरोजिनी अवस्थी केंद्रीय हिंदी संस्थान आगरा में पढाती हैं। तथा उनके पति श्री सरोजकुमार अवस्थी आगरा कालिज में विधि विभाग में पढ़ाते हैं। छोटे पुत्र श्री उदयन शर्मा पत्रकार हैं।
पं. श्रीराम शर्मा ने खुर्जा में हाईस्कूल तक की शिक्षा प्राप्त की। हाईस्कूल पास करने के बाद शर्माजी ने आगरा कालिज में प्रवेश लिया। प्रति शनिवार वे पैदल तैंतीस मील अपने गांव जाया करते थे और प्रति सोमवार आधी रात चलकर आगरा आ जाया करते थे। रेल किराए के साढ़े पांच आने बचाने के लिए वे यह करते थे। शरीर से वे अत्यंत शक्तिशाली थे, और मन से उतने ही निर्भय। गांव के जमींदारों के लठैतों को अपने साथ के 15-20 लड़कों के साथ, आठ-दस वर्ष की आयु में उन्होंने रेल की पटरी के पत्थरों से मार-मारकर भगा दिया था। कुएँ में घुसकर काले सांप को मारा था। ये सारे कार्य उनके चरित्र तथा स्वभाव के द्योतक है.। बी.ए. में पढते समय उनका संपर्क पं. श्रीकृष्णदत्त पालीवाल, श्री बालकृष्ण शर्मा नवीन तथा श्री गुलजारीलाल नंदा से हुआ। राष्ट्रीय आंदोलन तथा कांग्रेस के कार्यकर्ता में वे कूद पड़े। इसी बीच श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के संपर्क में आए, जिन्हें वे जीवनभर राजनीति तथा पत्रकारिता के क्षेत्र में अपना गुरु मानते रहे। बी.ए. पास करने के बाद शर्माजी ने एम. ए. (अर्थशास्त्र) तथा एलएल. बी. की कक्षाओं में प्रवेश लिया। उन्हीं दिनों श्री गणेशशंकर विद्यार्थी गिरफ्तार कर लिए गए। जेल से उनका संदेश प्राप्त करके शर्माजी ने पढ़ाई छोड़ दी और ‘प्रताप’ (कानपुर) का संपादन संभाल लिया। उसके बाद उन्होंने पीछे मुड़कर नहीं देखा। संपूर्ण जीवन पत्रकारिता, लेखन तथा राजनीति कार्य में अर्पित कर दिया। शर्माजी का देहावसान 27 फरवरी सन् 1967 को आगरा में हुआ था।
राजनीतिक कार्य
श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के प्रभाव से राजनीति में प्रवेश करने के बाद शर्माजी धीरे-धीरे महात्मा गांधी के अत्यंत निकट हो गए थे। 1942 से पूर्व के आठ-दस वर्षों तक वे प्रति वर्ष दो मास सेवाग्राम में गांधीजी के पास रहा करते थे। बापू का उन पर अटूट विश्वास था। आचार्य कृपलानी, श्री पुरुषोत्तमदास टंडन, पं. गोविंदवल्लभ पंत, डॉ. कैलाशनाथ काटजू आदि नेताओं के साथ उनके घनिष्ठ संबंध थे। 1942 के ‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के समय शर्माजी को उत्तर प्रदेश (तत्कालीन संयुक्त प्रांत) तथा मध्य प्रदेश का प्रभारी नेता नियुक्त किया गया था।
इसके पूर्व मैनपुरी षड्यंत्र केस में उनका सहयोग रहा था। विचारों तथा कर्मों से क्रांतिकारी शर्माजी 1942 के आगरा षड्यंत्र केस के प्रमुख अभियुक्त थे। केस का नाम था King Emperor v/s Sri Sharma and others. इस मुकदमें में 14 अभियुक्त थे। शर्माजी के बड़े पुत्र रमेशकुमार शर्मा, उनकी बेटी कमला शर्मा के साथ उनके बड़े बाई पं. बालाप्रसाद शर्मा पकड़े गए थे। अंत में 1945 में सब लोग जेल से रिहा हुए। गिरफ्तारी और जेल-प्रवास के दौरान शर्माजी के तीन पुत्रों की मृत्यु हो गई और पुलिस की मारपीट के कारण उनका एक कान भी फट गया था। जेल से छूटने के बाद वे सीधे गांधीजी के पास गए थे। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वे लेखन कार्य में ही अधिक रत रहे। जीवन के अंतिम 8-10 वर्षों में उन्होंने नेत्रहीन अवस्था में पांच पुस्तकें बोलकर लिखीं। ‘ग्लोकोमा’ के कारण उनके दोनों नेत्रों की ज्योति जाती रही थी।
इसके पूर्व मैनपुरी षड्यंत्र केस में उनका सहयोग रहा था। विचारों तथा कर्मों से क्रांतिकारी शर्माजी 1942 के आगरा षड्यंत्र केस के प्रमुख अभियुक्त थे। केस का नाम था King Emperor v/s Sri Sharma and others. इस मुकदमें में 14 अभियुक्त थे। शर्माजी के बड़े पुत्र रमेशकुमार शर्मा, उनकी बेटी कमला शर्मा के साथ उनके बड़े बाई पं. बालाप्रसाद शर्मा पकड़े गए थे। अंत में 1945 में सब लोग जेल से रिहा हुए। गिरफ्तारी और जेल-प्रवास के दौरान शर्माजी के तीन पुत्रों की मृत्यु हो गई और पुलिस की मारपीट के कारण उनका एक कान भी फट गया था। जेल से छूटने के बाद वे सीधे गांधीजी के पास गए थे। महात्मा गांधी की हत्या के बाद वे लेखन कार्य में ही अधिक रत रहे। जीवन के अंतिम 8-10 वर्षों में उन्होंने नेत्रहीन अवस्था में पांच पुस्तकें बोलकर लिखीं। ‘ग्लोकोमा’ के कारण उनके दोनों नेत्रों की ज्योति जाती रही थी।
साहित्यिक कार्य
(अ) पत्रिकारिता-शर्माजी ने ‘प्रताप’ (कानपुर) के संपादन से पत्रकारिता में प्रवेश किया। अनेक बार वे ‘फ्री लांस’ पत्रकारिता भी करते रहे। देशी-विदेशी पत्रकारों से उनका संपर्क रहा। इस क्षेत्र में स्व. रामानंद चट्टोपाध्याय का प्रभाव भी उनके ऊपर पड़ा। ‘योगी’ (पटना), ‘सैनिक’ (आगरा) आदि के प्रबंधन, संपादन तथा संचालन में योग देते रहे और 1938 से 1962 तक ‘विशाल भारत’ के संपादक रहे। श्री मोहनसिंह सैंगर तथा ‘अज्ञेय’ जी उनके सह-संपादक थे ‘विशाल भारत’ में उनके लिखे 1000 पृष्ठों के संपादकीय अपना विशेष राजनीतिक तथा साहित्यिक महत्त्व रखते हैं।
(आ) शिकार-साहित्य-हिंदी में शिकार-साहित्य का आरंभ शर्माजी ने ही किया था। वे स्वयं बड़े पटु शिकारी थे। जिम कार्बेट से उनके बड़े संबंध थे। अंडा-मांस शर्माजी छूते भी न थे-शुद्ध शाकाहारी थे। इस कारण हिंस्र पशुओं का ही शिकार करते थे। शिकार संबंधी उनके ग्रंथ हैं-शिकार, प्राणों का सौदा, जंगल के जीव तथा जिम कार्बेट की पुस्तकों (रुद्रप्रयाग का आदमखोर आदि) के अनुवाद। हिंदी के लेखक होते हुए भी शर्माजी प्राणी-विज्ञान के विशेषज्ञ थे। वनस्पति एवं जीव विज्ञान (बॉटनी तथा जूलोजी) के साथ-साथ कृषि-विज्ञान के माहिर भी थे। ‘भारत के जंगली जीव’ ‘भारत के पक्षी, ‘हमारी गायें’, तथा ‘पपीता’ आदि उनकी इस विषय की पुस्तकें हैं, जिनमें से बहुत-सी भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने प्रकाशित की हैं।
(इ) रेखाचित्र-संस्मरण(रिपोर्ताज)-शर्माजी हिंदी-साहित्य में इन विधाओं के जन्मदाता माने जाते हैं। इस क्षेत्र में उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं-बोलती प्रतिमा, वे जीते कैसे हैं, संघर्ष और समीक्षा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सेवाग्राम, डायरी, संस्मरण सीकर तथा नयना सितमगर (अप्रकाशित)।
हिंदी, अंग्रेजी, बंगला उर्दू तथा फारसी के विद्वान होने के कारण शर्माजी की भाषा-शैली एक विशेष प्रकार की प्रभविष्णुता से युक्त है। उनके जीवन पर अन्य व्यक्तियों के अतिरिक्त गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर संपादकाचार्य पं. पद्मसिंह शर्मा तथा दीनबंधु एंड्रूज का प्रचुर प्रभाव पड़ा था। अनेक वर्ष तक उनकी वार्षिक गतिविधि यह रही थी कि वे दो मास गांधीजी के पास रहते थे, दो मास शांतिनिकेतन में रहते थे, दो मास शिकार खेलते और शेष समय लेखन तथा राजनीतिक कार्यों में व्यतीत करते थे। 1935 की कांग्रेसी सरकार बनने पर वे उत्तर प्रदेश की सरकार में भी कुछ दिन रहे थे।
शर्माजी के व्यक्तित्व में विरोधों का विचित्र सम्मिश्रिण था। शिकार खेलते थे, मांस अंडा नहीं खाते थे। जहां भी जाते थे साथ में रायफल, सितार तथा कैमरा साथ होता था। लखनऊ के उस्ताद हामिद हुसैन से उन्होंने सितार सीखा था। गांधीजी, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, गुरुदेव, रवींद्रनाथ ठाकुर तथा दीनबंधु एंड्रूज के हजारों फोटो उन्होंने खींचे थे।
पं. पद्मसिंह शर्मा कहा करते थे कि शर्माजी की सी भाषा हिंदी के बहुत कम लेखक लिख सके हैं। उनका कथन था कि ‘‘शर्माजी की राइफल का निशाना जितना अचूक है, उतना ही उनकी भाषा का भी है। वह सीधे पाठक के हृदय में प्रवेश कर जाती है।’’ एक विशेष बात शर्माजी की शैली की है, उनके उद्धरणों का प्रयोग। विशेषकर उर्दू के शेरों का प्रयोग। लगभग प्रत्येक लेख, निबंध इत्यादि में उर्दू के शेरों के उद्धरण दिए हैं, विशेषकर अंत में, पौरुष, क्रांति, सादगी, ग्रामीण-जीवन के प्रति प्रेम, गांधीवाद, रूढ़ि-विरोध तथा पूर्ण निर्भयता शर्माजी की विशेषताएं थीं।
सत्यवादिता तथा कट्टर ईमानदारी उनके सिद्धांत थे। शिकार खेलते समय एक दिन में साठ मील चलना उनके लिए सहज बात थी। गढ़वाल के पर्वतीय प्रदेश में जिन दिनों वे टिहरी के हाईस्कूल के हैडमास्टर थे, उन्होंने सर्वाधिक शिकार खेला, विशेषकर शेर का। उन दिनों राइफल सहित 10-12 किलो वजन लादकर पहाड़ पर 55-60 मील दिन में चलना उनकी आदत थी। चारित्रिक, शारीरिक, राजनीतिक, साहित्यिक प्रत्येक प्रकार की दुर्बलता से उनको घृणा थी। इसके साथ-साथ वे परम भावुक तथा परदुखकातर थे। सर्वधर्म-समभाव तथा सामाजिक समत्व में उनका पूर्ण विश्वास था। ‘बोलती प्रतिमा’ के रेखाचित्रों में मजदूर एवं दलितवर्ग के उनके चित्र इसके प्रमाण हैं। हिंदी-साहित्य में इतने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में गतिवान रहने वाला व्यक्तित्व संभवत: अन्य दूसरा नहीं है।
(आ) शिकार-साहित्य-हिंदी में शिकार-साहित्य का आरंभ शर्माजी ने ही किया था। वे स्वयं बड़े पटु शिकारी थे। जिम कार्बेट से उनके बड़े संबंध थे। अंडा-मांस शर्माजी छूते भी न थे-शुद्ध शाकाहारी थे। इस कारण हिंस्र पशुओं का ही शिकार करते थे। शिकार संबंधी उनके ग्रंथ हैं-शिकार, प्राणों का सौदा, जंगल के जीव तथा जिम कार्बेट की पुस्तकों (रुद्रप्रयाग का आदमखोर आदि) के अनुवाद। हिंदी के लेखक होते हुए भी शर्माजी प्राणी-विज्ञान के विशेषज्ञ थे। वनस्पति एवं जीव विज्ञान (बॉटनी तथा जूलोजी) के साथ-साथ कृषि-विज्ञान के माहिर भी थे। ‘भारत के जंगली जीव’ ‘भारत के पक्षी, ‘हमारी गायें’, तथा ‘पपीता’ आदि उनकी इस विषय की पुस्तकें हैं, जिनमें से बहुत-सी भारत सरकार के प्रकाशन विभाग ने प्रकाशित की हैं।
(इ) रेखाचित्र-संस्मरण(रिपोर्ताज)-शर्माजी हिंदी-साहित्य में इन विधाओं के जन्मदाता माने जाते हैं। इस क्षेत्र में उनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं-बोलती प्रतिमा, वे जीते कैसे हैं, संघर्ष और समीक्षा, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई, सेवाग्राम, डायरी, संस्मरण सीकर तथा नयना सितमगर (अप्रकाशित)।
हिंदी, अंग्रेजी, बंगला उर्दू तथा फारसी के विद्वान होने के कारण शर्माजी की भाषा-शैली एक विशेष प्रकार की प्रभविष्णुता से युक्त है। उनके जीवन पर अन्य व्यक्तियों के अतिरिक्त गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर संपादकाचार्य पं. पद्मसिंह शर्मा तथा दीनबंधु एंड्रूज का प्रचुर प्रभाव पड़ा था। अनेक वर्ष तक उनकी वार्षिक गतिविधि यह रही थी कि वे दो मास गांधीजी के पास रहते थे, दो मास शांतिनिकेतन में रहते थे, दो मास शिकार खेलते और शेष समय लेखन तथा राजनीतिक कार्यों में व्यतीत करते थे। 1935 की कांग्रेसी सरकार बनने पर वे उत्तर प्रदेश की सरकार में भी कुछ दिन रहे थे।
शर्माजी के व्यक्तित्व में विरोधों का विचित्र सम्मिश्रिण था। शिकार खेलते थे, मांस अंडा नहीं खाते थे। जहां भी जाते थे साथ में रायफल, सितार तथा कैमरा साथ होता था। लखनऊ के उस्ताद हामिद हुसैन से उन्होंने सितार सीखा था। गांधीजी, आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी, गुरुदेव, रवींद्रनाथ ठाकुर तथा दीनबंधु एंड्रूज के हजारों फोटो उन्होंने खींचे थे।
पं. पद्मसिंह शर्मा कहा करते थे कि शर्माजी की सी भाषा हिंदी के बहुत कम लेखक लिख सके हैं। उनका कथन था कि ‘‘शर्माजी की राइफल का निशाना जितना अचूक है, उतना ही उनकी भाषा का भी है। वह सीधे पाठक के हृदय में प्रवेश कर जाती है।’’ एक विशेष बात शर्माजी की शैली की है, उनके उद्धरणों का प्रयोग। विशेषकर उर्दू के शेरों का प्रयोग। लगभग प्रत्येक लेख, निबंध इत्यादि में उर्दू के शेरों के उद्धरण दिए हैं, विशेषकर अंत में, पौरुष, क्रांति, सादगी, ग्रामीण-जीवन के प्रति प्रेम, गांधीवाद, रूढ़ि-विरोध तथा पूर्ण निर्भयता शर्माजी की विशेषताएं थीं।
सत्यवादिता तथा कट्टर ईमानदारी उनके सिद्धांत थे। शिकार खेलते समय एक दिन में साठ मील चलना उनके लिए सहज बात थी। गढ़वाल के पर्वतीय प्रदेश में जिन दिनों वे टिहरी के हाईस्कूल के हैडमास्टर थे, उन्होंने सर्वाधिक शिकार खेला, विशेषकर शेर का। उन दिनों राइफल सहित 10-12 किलो वजन लादकर पहाड़ पर 55-60 मील दिन में चलना उनकी आदत थी। चारित्रिक, शारीरिक, राजनीतिक, साहित्यिक प्रत्येक प्रकार की दुर्बलता से उनको घृणा थी। इसके साथ-साथ वे परम भावुक तथा परदुखकातर थे। सर्वधर्म-समभाव तथा सामाजिक समत्व में उनका पूर्ण विश्वास था। ‘बोलती प्रतिमा’ के रेखाचित्रों में मजदूर एवं दलितवर्ग के उनके चित्र इसके प्रमाण हैं। हिंदी-साहित्य में इतने भिन्न-भिन्न क्षेत्रों में गतिवान रहने वाला व्यक्तित्व संभवत: अन्य दूसरा नहीं है।
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